क्या श्री कृष्ण परमात्मा है?

Sougata Ghosh
14 min readNov 24, 2023

परमात्मा के नामों की व्याख्या

सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में ऋषि दयानन्द नें परमात्‍मा के सौ नामों की वैदिक व्याख्या की है । यहाँ कुछ नामों की व्याख्या प्रस्तुत है ।

ये जो भी नाम आये हैं परमात्मा के, ये सब परमात्मा के गुणों को दर्शाने वाले निराकार ऊर्जा शक्ति के नाम हैं।

निराकार,अदृश्य मान, परम ऊर्जा शक्तियों के अनेक रूप और चरण हैं। जिन्हें पहचान कराने के लिए ही इनके अनेको नाम रखे गए हैं और इन्ही वेदों से इन नामों का प्रचार हुआ और दुर्भाग्यवश इन नामो को मानव रूपी सूरत देकर इन्हें जीवित मानव रुप में दिखाने का दुष्चक्र शुरू हो गया।

इनकी पत्नी, बच्चे पैदा होने की असत्य, काल्पनिक कहानियां बनाकर पुराण बना दी गयी। पर वास्तव में ये सब सर्वोच्च सत्ता परमेश्वर के अधीन विभिन्न ऊर्जा शक्तियों के ही नाम हैं। जिनका भिन्न भिन्न कार्य और दायित्व है। इन्हें निराकार, अदृश्य रूप में ही स्मरण कर इनका आशीर्वाद प्राप्त करने का आह्वान, उपासना करनी चाहिए। अन्यथा सारी प्रार्थना, सेवा निष्फल हो जाती है, मनुष्य का आध्यात्मिक चेतना का विकास बाधित हो जाता है।

आइए परमात्मा के इन्ही विभिन्न शक्तिरूपक नामों के सही संदर्भ नामो को ग्रहण करें : — —

(१.) “ओ३म् खं ब्रह्म ।।” ( यजुर्वेद ४०/१७ )

ओ३म् = सबका रक्षक ब्रह्म परमेश्वर जो आकाश के समान सर्वत्र व्यापक है।

(२.) “प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे ।

यो भूतः सर्वस्य ईश्वरो यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।”

( अथर्व ११/४/१ )

ईश्वर = आश्वर्यवान संसार के समस्त पदार्थों का स्वामी

(३.) तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।

दिवीव चक्षुराततम् ॥” ( ऋग्वेद १/२/७/२० )

विष्णु = सर्वत्र व्यापकशील और सुंदर विशेषणों से युक्त सबको धारण करने वाला परमात्मा

(४.) “अभि प्रियाणि काव्या विश्वा चक्षाणो अर्षति । हरिस्तुञ्जान आयुधा ॥” ( ऋग्वेद ९/५७/२ )

हरि = दुखों को हरने वाला परमात्मा

(५) “भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः ।।” ( अथर्ववेद

१९/२२/२१ )

ब्रह्मा = सबसे बड़ा सर्वज्ञ परमात्मा

(६.) “ब्रह्मणा तेजसा सह प्रति मुञ्चामि मे शिवम् ।

असपत्ना सपत्नहा सपत्नान मेऽधराँ अकः ।।”

( अथर्ववेद १०/६/३० )

शिव = सर्वकल्याणकारी मंगलकारी परमेश्वर

(७.) “नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।।”

( यजुर्वेद १६/४१ )

शंकर = सदा धर्मयुक्त कर्मों को प्रेरित करने वाला परमेश्वर

(८.) “त्र्यम्बकं जयामहे सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम् ।

*ऊर्वारुरमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ।।”

( ऋग्वेद ७/५९/१२ )

त्र्यम्बक = भूत,भविष्य व वर्तमान तीनों कालों के ज्ञाता तथा कार्य जगत,कारण जगत व सब जीवात्माओं का स्वामी परमेश्वर

(९.) “गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे …..।।” ( यजुर्वेद २३/१९ )

गणपति = सब प्रकार के समूहों, समुदायों व मंडलों आदि के स्वामी परमेश्वर

(१०.) “सोऽर्यमा स वरुणः स रुद्रः स महादेव ।

रश्मिर्भिर्तभ आभृतं महेन्द्र एत्यावृतः ।।”

( अथर्ववेद १३/४/४ )

इस मंत्र में ईश्वर के कई नाम आये हैं -

अर्यमा = श्रेष्ठों का मान करने वाला परम पिता परमात्मा

महादेव = देवों का देव महादानी परमात्मा

वरुण = सर्वश्रेष्ठ

रुद्र = दुष्टों को रुलाने वाला ज्ञानवान

महेन्द्र = सबसे बड़ा और सबसे महान ऐश्वर्यवान

(११.) “इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुप्रणो गुरुत्मान् । एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।।” ( अथर्ववेद ९/१०/२८ )

इस मंत्र में भी ईश्वर के कई नाम आये हैं — —

इन्द्र = अत्यन्त ऐश्वर्यशाली परमात्मा

मित्र = सबका सहायक,सबको प्रीति करने वाला परमेश्वर

अग्नि = ज्ञानस्वरूप सर्वव्यापी जानने योग्य चेतन परमात्मा

दिव्य = प्रकाशमय,उत्कृष्ट गुणों से युक्त देव परमात्मा

सुपर्ण = सुंदर ढंग से पालन करने वाला सामर्थ्यवान परमात्मा

गुरुत्मान =महान आत्मा वाला

यम = न्यायकारी जगत् नियन्ता परमात्मा

ऐसे कई नाम एक ही निराकार परम पिता परमात्मा के वेदों में आए हैं। इन्हीं नामों के आधार पर बहुत से महापुरुषों के नाम भी संसार में हुए हैं। समय बीत जाने के साथ लोगों ने अज्ञानता वश इन्हीं महापुरुषों के नाम और इनकी महिमा वेदों में समझ ली और ऐसी मान्यता बना ली कि ईश्वर अनेक होते हैं और अवतार लेते हैं जिनका नाम वेदों में लिखा है। जो कि निराधार कल्पना है। ईश्वर एक ही है निराकार है सर्वव्यापक है कण कण में व्यापक होकर सबको धारण और सबका पालन कर रहा है। सबको कर्मों के अनुसार यथायोग्य फल भी देता है। जिसका सर्वश्रेष्ठ नाम ओ३म् है।

शेष जितने भी असंख्य नाम वेदों में हैं वे सब उसके असंख्य गुणों के अनुसार ही हैं जैसे विष्णु, शिव, रुद्र, इन्द्र, लक्ष्मी, सरस्वति,अम्बा, दुर्गा, काली, पार्वती आदि ये सब नाम उस निराकार ओ३म् के ही हैं। जिसकी उपासना हमारे पूर्वज ऋषि मुनि आदि सब योगाभ्यास की रीति से करते आ रहे हैं।

यज्ञ, योग, परमात्मा के सर्वोत्तम ओम् नाम का स्मरण और वेदानुकूल आचरण ही उस प्रियतम जगनियन्ता की भक्ति है | बहुमूल्य दुर्लभ मनुष्य जन्म को बेकार की बातों में नष्ट करना उचित नहीं ।

Yoga Sutra — 27

तस्य वाचक: प्रणव: ।। 27 ।।

शब्दार्थ :- तस्य, ( उस ईश्वर का ) वाचक:, ( बोला जाने वाला नाम ) प्रणव:, ( ओ३म् / ओम् है । )

सूत्रार्थ :- उस ईश्वर का बोधक अर्थात ज्ञान करवाने वाला नाम ओ३म् / ओम् है ।

व्याख्या :- इस सूत्र में ईश्वर के वाचक अर्थात बोले जाने वाले ओम् नाम का वर्णन किया गया है ।

जो शब्द किसी वस्तु या पदार्थ के अर्थ का बोध ( ज्ञान या जानकारी ) करवाता है वह उसका ( वस्तु या पदार्थ का ) ‘वाचक’ कहलाता है । और उस शब्द के द्वारा जिस पदार्थ या वस्तु का ज्ञान होता है वह ‘वाच्य’ कहलाता है । जैसे — ऋषि शब्द ‘वाचक’ है और गेहुँआ वस्त्रों को धारण करने वाला, लम्बे बाल व दाढ़ी रखने वाला तथा कुटिया में निवास करने वाला व्यक्ति विशेष उसका ‘वाच्य’ है ।

वाचक उसे कहतें है जिससे किसी व्यक्ति या वस्तु का ज्ञान होता है । और वाच्य उसे कहते है जो उस व्यक्ति या वस्तु की ऐसी विशेषताएं बताए जिससे उस वस्तु या व्यक्ति का ज्ञान स्वतः ( स्वंम ही ) हो जाए । उपर्युक्त उदाहरण में ऋषि शब्द बोला जाने वाला नाम है । और उसकी वेशभूषा व उसके रहन- सहन से हमें उसके लक्षणों का पता चलता है ।

ईश्वर एक है, अनेक नहीं। वेद और वेदानुकूल सभी ग्रंथों में ऐसा ही लिखा है। एक ईश्वर ही अनेक नामों से पुकारा जाता है। प्रत्येक नाम उसके किसी न किसी गुण को प्रकट करता है जैसे-

ब्रह्म : सबसे बड़ा

ब्रह्मा : सब जगत को बनाने वाला।

शिव : कल्याण स्वरूप और कल्याण करने वाला।

विष्णु : चर और अचर सब जगत-में व्यापक।

रूद्र : दुष्ट कर्म करने वालों को दंड देकर रुलाने वाला।

गणेश : सब का स्वामी और पालन करने वाला।

पिता : सब का पालन और रक्षा करने वाला।

देव : विद्वान और विद्या आदि देने वाला।

यम : सब प्राणियों को न्यायपूर्वक यथायोग्य कर्मफल देने वाला।

भगवान : ऐश्वर्यवान।

चंद्र : आनंद स्वरूप और सबको आनंद देने वाला।

ओ३म् : यह शब्द तीन अक्षरों अ, उ, म् से बना है। अ+उ=ओ। ओ और म् के बीच में लिखा है ‘‘३’’। ओम् के उच्चारण को लम्बा करने का निर्देश देता है।

अ = विराट्, अग्नि, विश्व आदि।

उ = हिरण्य गर्भ, वायु, तैजस आदि।

म् = ईश्वर, आदित्य, प्राज्ञ आदि।

विराट = जो बहुत प्रकार के जगत-को प्रकाशित करे।

अग्नि = ज्ञान स्वरूप सर्वज्ञ।

विश्व : जो आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु में प्रविष्ट हुआ है।

हिरण्य गर्भ : जो सूर्य आदि तेज वाले पदार्थ का उत्पत्ति तथा निवास स्थान है।

वायु: जो सब चराचर जगत का धारण, जीवन और प्रलय करता है।

तेजस: जो स्वयं प्रकाश स्वरूप तथा सूर्य आदि तेजस्वी लोकों का प्रकाश करने वाला है।

ईश्वर: सामर्थ्यवान।

आदित्य: जिसका विनाश कभी न हो।

प्राज्ञ: जो सब चराचर जगत के व्यवहार को यथावत जानता है।

ईश्वर के सब नामों में ‘ओम्’ सर्वोत्तम नाम है क्योंकि इससे उसके सबसे अधिक गुण प्रकट होते हैं। यही ईश्वर का प्रधान और निज नाम है। अन्य सभी नाम गौण हैं। ओ३म् एवं ब्रह्म। (वाजुर्वेद 40, 18) अर्थ : आकाश के समान व्यापक, सबसे बड़ा सब जगत का रक्षक ओ३म् है। ओ३म्क्रतोस्मर। (यजुर्वेद)

अर्थ : ऐ कर्मशील मनुष्य! ओ३म् को याद रख।

ओ३म् इतिद् अक्षरम् उद्गीथम् उपासीत:। छान्दग्यो-पनिषद्।

अर्थ : ओ३म् जिसका नाम है और जो कभी नष्ट नहीं होता, उसी की उपासना करनी योग्य है, और किसी की नहीं।

ओ३म् इति एतद् अक्षरम् इदम् सर्व तस्य उपव्याख्यानम्। (मांडूक्योपनिषद्)

अर्थ : वेदादि सब शास्त्रों में परमेश्वर का प्रधान और निज नाम ‘ओम्’ को कहा गया है।

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमी ओम् इति एतत्।। (कठोयनिषद्)

अर्थ : सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं, जिसे जानने के लिए सब तप किए जाते हैं, जिसकी चाहना में यति लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं,वह पद संक्षेप में तुझे बताता हूं, वह पद ‘ओम्’ है।

इन मंत्रों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि ईश्वर का मुख्य और निज नाम ‘ओ३म्’ है। अन्य नामों को छोड़ कर ‘ओ३म्’ की ही उपासना करनी चाहिए।

भारत देश की विशेषता, महत्त्व आकर्षण एवं सौभाग्य रहा कि इसे ऋषि , मुनि, ज्ञानी, तपस्वी, प्रेरक महापुरुषों की विरासत व परम्परा मिली है। दिव्यात्मा, पुण्यात्मा महापुरुषों की लम्बी परम्परा में भगवान मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम और योगिराज श्रीकृष्ण का नाम बड़ी श्रद्धा सम्मान और पूज्यभाव में लिया जाता है। अधिकांश भक्तजन इनमें दैवीय युक्त पूज्य एवं आराध्य भाव रखते हैं। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रेरक, आकर्षक, लोकोपकारक, बहुआयामी तथा चुम्बकीय था। इसी कारण लाखों हजारों वर्षों के घात-प्रतिघात वात्याचक्रों विवादों आदि के होते हुए भी वे आज भी जनमानस के हृदयों में पूजित सम्माननीय, स्मरणीय व अलौकिक महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हैं। श्रीकृष्ण पुण्यात्मा, धर्मात्मा, तपस्वी, त्यागी, योगी, वेदज्ञ, निरहंकारी, कूटनीतिज्ञ, लोकोपकारक, खण्ड-खण्ड भारत को अखण्ड देखने के स्वप्नद्रष्टा आदि अनेक, गुणों व विशेषणों से विभूषित थे। वे मानवता के रक्षक, पालक और उद्दारक थे। उनके जीवन का उद्देश्य था — परित्राणाय साधूनाम् सत्पुरुषों व धर्मात्माओं की रक्षा हो तथा विनाशाय दुष्कृताम पापी, अपराधी तथा दुष्ट प्रकृति के लोगों का दलन हो और धर्म संस्थापनार्थ सत्य धर्म, न्याय की सर्वत्र स्थापना होनी चाहिए। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति में उन्होंने दुःख, कष्ट, विराध एवं संघर्ष करते हुए सारा जीवन लगा दिया। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर न जाने कितना लिखा, पढ़ा सुना और बोला गया, फिर भी उनके जीवन और कार्यों की वास्तविक प्रमाणिक सत्य स्वरूप जानकारी हमारे से ओझल हो रही है। भागवत्, पुराणों, लोक साहित्य, कथाओं, रासलीलाओं, कृष्णलीलाओं, सीरियलों, पिक्चरों, नाटकों आदि में वे तमाशा बन रहे हैं। अधिकांश लोग और आज की युवापीढ़ी जो योगेश्वर श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक जीवन स्वरूप मान रहे हैं। यह देश, धर्म मानवजाति एवं इतिहास के लिए दुर्भाग्य पूर्ण है।

संसार के इतिहास में श्रीकृष्ण जैसा निराला, विलक्षाण, अद्भुत, अद्वितीय विश्वबन्धुत्व, महापुरुष न मिलेगा। यदि किसी महापुरुष में वेद, दर्शन, योग, आध्यात्म, इतिहास साहित्य, संगीत, कला, राजनीति, कूटनीति आदि सभी एकत्र देखने, हैं तो वह अकेले देवपुरुष श्रीकृष्ण हैं सत्य ये है कि दुनिया के नादान लोगों ने उस योगीराज श्रीकृष्ण का भेद नहीं जाना। जिनका जन्म जेल में हुआ। जन्म से पहले ही मृत्यु के वारन्ट निकल गए। कैसी विचित्र बिडम्बना रही जब जन्म हुआ उस समय उनके पास कोई खुशी मनाने वाला, बधाई देने वाला और मिठाई बांटने वाला नहीं था। ऐसे ही मृत्यु के समय भी उनके पास कोई रोने वाला नहीं था। विमाता यशोदा की गोद में पले, विपरीत परिस्थिति के करण मामा को मारना पड़ा। राज्य छोड़कर द्वारिका असमय में जाना पड़ा। सत्य-न्याय, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए नाना रूप धारण करने पड़े। कई प्रकार की भूमिकाएं निभाई। कई बार अपमान, विरोध व संघर्ष का जहर पीना पड़ा। सम्पूर्ण जीवन कष्ट, संघर्ष, विवादों मुसीबतों का अजायबघर रहा। ऐसे विरोधाभास में रहते, जीते जीवन में कभी निराश, हताश, उदास एवं दुःखी नजर नहीं आए। यही उनके जीवन की समरसता एवं महापुरुषत्व है। उनके जीवन से ऐसी शिक्षा एवं प्रेरणाएं लेनी चाहिए।

महाभारत में अनेक विशेषताओं से युक्त अनेक महापुरुष हुए मगर सभी का जन्म दिन नहीं मनाया जाता है। हजारों वर्षो के बाद बिना सूचना, पत्रक, विज्ञापन आदि के श्रीकृष्ण का जन्म दिन सबको याद है। बड़ी धूमधाम के साथ सजावट-बनावट के साथ पूज्य भावना से जन्मोत्सव मनाया जाता है। जो महापुरुष संसार, मानवता, सत्य, धर्म-न्याय एवं सर्वेभवन्तुः सुखिनः के लिए जीता और मरता है उसका जन्मोत्वस सभी जन श्रद्धा भक्ति व सम्मान से मनाते हैं तभी महाभारतकार व्यास को ससम्मान कहना पड़ा ‘कृष्ण वन्दे जगत्गुरुम्’ पूरे महाभारत में सर्वाधिक, पूज्यनीय, अग्रणी, वन्दनीय हैं तो श्रीकृष्ण को माना गया है। श्रीकृष्ण का असली स्वरूप और चरित्र महाभारत मं ही मिलता है। सम्पूर्ण महाभारत में तटस्थ रहते हुए भी सत्य, न्याय-धर्म के लिए अहंभूमिका निभाते हैं। वहां वे राष्ट्रनायक के रूप में दिखाई देते हैं तभी द्रोणाचार्य को कहना पड़ा-

यतो धर्मस्ततः कृष्णः यतः कृष्णस्ततो जयः

जहां धर्म है वहां श्रीकृष्ण हैं और जहां श्रीकृष्ण हैं वहां निश्चय विजय होगी। महाभारत में श्रीकृष्ण ने अपनी भूमिका बड़ी कुशलता निपुणता, कूटनीति एवं सक्रियता से निभाई। संसार उनके कर्म कौशल के आगे नतमस्तक है।

अपने इतिहास, संस्कृति, धर्मग्रन्थों, महापुरुषों आदि को विकृत, कलंकित पतित एवं छेड़खानी करने वाली संसार में जाति है तो वह हिन्दू हैं। जिसने अपने इतिहास, पूर्वजों महापुरुषों के सत्य यथार्थ स्वरूप को समझा, जाना, माना और अपनाया नहीं है। जैसा आज योगीराज भगवान श्रीकृष्ण का अश्लील, भोगी, विलासी, लम्पट, पनघट पर गोपिकाओं को छोड़ने वाला आदि दिखाया, सुनाया पढ़ाया तथा बताया जा रहा है। वैसा सच्चे अर्थ में उनका प्रमाणिक जीवन चरित्र नहीं था। उन्हें चोरजार शिरोमणि, माखन चोर आदि कहकर/लांछन लगाये गए। मीडिया श्रीकृष्ण के नाम पर अश्लीलता, श्रृंगार, वासना, कामुकता, ग्लैमर अन्ध विश्वास, पाखण्ड आदि दिखा, सुना और फैला रहा है। आज की पीढ़ी इन्हीं बातों को सच व ऐतिहासिक मान रही है। कोई रोकने, टोकने व कहने वाला नहीं है। एक आर्य समाज है जो सत्य को सत्य और गलत को गलत कहने वाला था, वह आज स्वयं अपने में उलझा पड़ा है। उसकी आवाज में वह तीक्ष्णता और पैनापन नहीं रहा। इसीजिए तेजी से ढ़ोंग, पाखण्ड, अन्धश्र(ा, अन्धविश्वास, गुरुडम आदि फैल रहा है। महापुरुषों की परम्परा में किसी को योगीराज की उपाधि, सम्मान, पहिचान एवं पूज्यभाव मिला है तो वे श्रीकृष्ण हैं। वास्तव में श्रीकृष्ण का गुण, कर्म स्वभाव आचरण, जीवन दर्शन चरित्र ऐसा नहीं था जो आज मिलता है। असली उनका चरित्र महाभारत में है जहां वे सर्वमान्य, सर्वपूज्य, योगी, उपदेशक, मार्ग दर्शन, विश्वबन्धुत्त्व, नीतिनिपुण, सत्य न्याय, धर्म के पक्षधर के रूप में दिखाई देते हैं।

जब वर्तमान में प्रदर्शित जीवन चरित्र की तुलना महाभारत के श्रीकृष्ण से करते हैं। तो रोना आता है। गीता जैसा अमूल्य ग्रन्थ महाभारत का ही अंग है। विश्व में धर्म व आध्यात्म के क्षेत्र में ज्ञान भारत को गीता से मिला और सम्मान व पहिचान बनी। गीता में श्रीकृष्ण ने जो जीवन जगत के लिए अमर उपदेश व सन्देश दिए हैं वे युगों-युगों तक जीवित-जागृत रहेंगे। गीता भागने का नहीं जागने की दृष्टि विचार एवं चिन्तन देती है। जीवन-जगत में रहते हुए, निष्काम करते हुए जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष तक पहुंचने का गीता दिव्य सन्देश देती है। गीता में ज्ञान-विवेक वैराग्य पूर्ण श्रीकृष्ण योगी के रूप में सामने आते हैं। जैसे कोई हिमायल की चोटी पर खड़ा योगी आत्मा-परमात्मा, जीवन-मृत्यु, भोग,योग, ज्ञान, कर्म, भक्ति आदि का चिन्तन प्रेरणा व सन्देश दे रहा हो। तत्वज्ञ पाठकगण सोचें-विचारें और समझें- कहां गीता के श्रीकृष्ण और पुराणों कथाओं कल्पित कहानियों के श्रीकृष्ण हैं? हमने उन्हें क्या से क्या बना दिया है। अमृत से निकालकर उन्हें कीचड़ में डाल रहे हैं? महाभारत और गीता के श्रीकृष्ण को भूलकर, छोड़कर आज समाज पुराणों व रसीली कथाओं के श्रीकृष्ण के चरित्र को पकड़ रहे हैं।

संसार का दुर्भाग्य है कि श्रीकृष्ण के सत्यस्वरूप, जीवनादर्शन के साथ अन्याय व धोखा हो रहा है। पुराणों में श्रीकृष्ण को युवा व वृ( होने ही नहीं दिया, बाल लीलाओं में उनका सम्पूर्ण जीवन अंकित व चित्रित होकर रह गया। जिन्हांने कभी भीख नहीं मांगी थी। आज हम उनके चित्र व नाम पर धन बटोर व भीख मांग रहे हैं? किसी विदेशी चिन्तक ने श्रीकृष्ण के वर्तमान स्वरूप को देखकर टिप्पणी की थी यदि भारत में सबसे अधिक अन्याय व अत्याचार किया है तो वह अपने महापुरुषों के चरित्र के साथ किया है उनके असली स्वरूप को भुलाकर विकृत व कलंकत रूप में उन्हें दिखा रहे हैं। इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा। ऋषि दयानन्द से बढ़कर सत्य वक्ता और प्रमाणिक कौन हो सकता है। उन्होंने श्रीकृष्ण के उज्जवल व प्रेरक चरित्र की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है ‘‘देखो। श्रीकृष्ण का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। श्रीकृष्ण ने जन्म से लेकर मरण पर्यन्त बुरा काम कुछी भी किया हो ऐसा कहीं भी नहीं लिखा है।’’

महाभारत में राधा का कहीं नाम नहीं आता है। किन्तु राधा के नाम बिना श्रीकृष्ण की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। राधा यशोदा के भाई रावण की पत्नी थी। पुराणों, लोक कथाओं, कहानियों साहित्य आदि में श्रीकृष्ण के चरित्र को कलंकित व विकृत बदनाम करने के लिए राधा का नाम जोड़ा गया। इतिहास में मिलावट की गई। लोगों को नैतिक, धार्मिक जीवन मूल्यों से पथभ्रष्ट करने के लिए श्रीकृष्ण और राधा के नाम पर अश्लीलता व श्रृंगारिक कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया गया। जो आज फल-फूल रहा है। श्रीकृष्ण पत्नीव्रत थे उनकी धर्म पत्नी रुक्मिणी थीं। श्रीकृष्ण के जीवन वृत्त में तो रुक्मिणी का नाम आता है मगर व्यावहारिक रूप में मंदिरों, लीलाओं, कथाओं, झांकियों आदि में रुक्मिणी को श्रीकृष्ण के साथ नहीं दिखाया जाता है। यह रुक्मिणी के साथ पाप और अन्याय है। सच्चा इतिहास इसे कभी माफ नहीं करेगा। श्रीकृष्ण जैसे एक पत्नीव्रती, ज्ञानी, संयमी मर्यादापालक महापुरुष व्यभिचारी एवं परस्त्रीगामी कैसे हो सकते हैं। श्रीकृष्ण संसार के अद्वितीय महापुरुष थे।

वे दिव्य गुणों से युक्त महापुरुष थे उन्हें अपवादी ईश्वर नहीं मानता हूं। परमात्मा एक है अनेक नहीं, वह कण-कण में सर्वत्र विद्यमान है। वह व्यक्ति नहीं शक्ति है। वह सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व सर्वान्तरयामी है। वह जन्म मृत्यु से परे है। गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने कहा है-

ईश्वरः सर्वभूतानां हृददेशेऽर्जुन तिष्ठति

वह परमेश्वर सर्व प्राणियों के हृदय में सदा निवास करता है। यदि हम श्रीकृष्ण को महापुरुष के रूप में जाने और मानेंगे तो उनसे जीवन जगत के लिए हम बहुत कुछ सीख, प्रेरणा व शिक्षा ले सकते हैं। वे हमारे रोल मॉडल बन सकते हैं। श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन दर्शन, निराश, हताश उदास, परेशान, अशान्त किंर्त्तव्य विमूढ़, व्यक्ति को सदा हिम्मत, सहारा, आशा और आगे बढ़ने की रोशनी देता है। अधिकांश लोगों को यह भ्रान्ति अज्ञान और भूल है कि आर्य समाज किसी देवी-देवता, महापुरुष आदि को नहीं मानता है। सच ये है कि जितनी सच्चाई ईमानदारी श्र(ाभक्ति से महापुरुषों के सत्यस्वरूप को आर्य समाज मानता जानता और बताता है उतना और कोई नहीं क्योंकि आर्य विचारधारा का आधार बु(, तर्क व प्रमाण हैं। आर्य समाज कहता है चित्र का हम सम्मान करते हैं और चरित्र का अनुकरण करते हैं।

प्रतिवर्ष श्रीकृष्ण के जन्म को जन्माष्टमी के रूप में बड़ी धूमधाम से कृष्णलीला, रासलीला, झांकियां और तरह -तरह के कार्यक्रमों के रूप में मनाया जाता है। ग्लैमरस रास-रंग, रसीले श्रृंगारिक कार्यक्रम होते हैं। करोड़ों का बजट चकाचौंध में चला जाता है। जो श्रीकृष्ण के योगदान महत्त्व, जीवनदर्शन, गीताज्ञान, शिक्षाओं उपदेशों आदि का चिन्तन-मनन होना चाहिए वह गौण होकर ओझल हो जाता है। मूल छूट जाता है। ऐसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रेरक अवसरों पर महापुरुषों द्वारा दिए गए उपदेशों, सन्देशों, विचारों व ग्रन्थों पर चिन्तन-मनन व आचरण की शिक्षा लेनी चाहिए। जो महापुरुषों के जीवन चरित्रों के साथ काल्पनिक, चमत्कारिक और अतिशयोक्ति पूर्ण बातें जोड़ दी गई हैं जिन्हें लोग सत्य वचन महाराज और सिर नीचा करके स्वीकार कर रहे हैं उन व्यर्थ की मनगढ़न्त बातों पर परस्पर चर्चा करके भ्रांतियों और अन्जान को हटाना चाहिए तभी महापुरुषों को स्मरण करने तथा जन्मोत्सव मनाने की सार्थकता,उपयोगिता और व्यावहारिकता है। उस महामानव इतिहास पुरुष योगेश्वर श्रीकृष्णकी स्मृति को कोटि-कोटि प्रणाम।

सारा खेल “मैं” का है जो श्री कृष्ण गीता का ज्ञान देते समय बोलते है, मतलब जैसे — “मै ही ॐ हु, मई ही परमात्मा हु” आदि आदि

तो उसका जवाब -

“मैं” की अनुभूति किसको होती है उसका उत्तर वेदांत दर्शन में दिया गया है

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